बड़ौत – दिगम्बर जैनाचार्य श्री विशुद्धसागर जी महाराज ने ऋषभ सभागार मे धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि – इच्छाएँ अनंत हैं, परन्तु वस्तुएँ अल्प हैं। हर मानव दुनिया पर राज्य करना चाहता है। एक-एक मानव की आकांक्षायें इतनी अधिक हैं कि संसार की सम्पूर्ण वस्तुओं से भी संतुष्ट नहीं किया जा सकता है, फिर अनन्तानन्त जीवों की आकांक्षाओं को कौन पूर्ण कर सकता है? आकांक्षायें ही दुःख का कारण हैं। अपेक्षा ही कष्ट देती हैं और उपेक्षा आनन्दकारी है। इच्छाओं की उपेक्षा होते ही शांति मिलती है। जो जगत से उपेक्षा करना सीख लेता है, जो इच्छाओं की उपेक्षा करना जानता है, उसे जगत की उपेक्षा झेलना नहीं पड़ती है। अति की इति हो जाती है। ईर्ष्या इंसान को नीचे गिरा देती है। ईष्र्यालु स्वयं में ही झुलसता है। ईर्ष्यालु को गुणी के गुण भी नहीं दिखते। ईर्ष्यालु दूसरों को कष्ट में डालने के लिए स्वयं को भी नष्ट कर लेता है। सज्जनों को विघ्न संतोषियों से सावधान रहना चाहिए। जैसे क्रूर सिंह, सर्प से बचते हो, ऐसे ही ईर्ष्यालुओं से अपनी रक्षा करो । ईर्ष्यालुओं ने भी अकम्पनाचार्य आदि सात-सौ दिगम्बर मुनिराजों पर घनघोर उपसर्ग कर दिया, तब ऋद्धि धारी महामुनि विष्णुकुमार ने विक्रिया से संकट दूर किया।
ईर्ष्या सर्वनाश करा देती है। वासना ने रावण का अंत करा दिया। ईर्ष्या ने कौरव वंश मिटा दिया। कषाय कष्टकारी ही होती है । कलह कुल की शांति भंग कर देती है। वध करना भी हिंसा है और बदनाम करना भी हिंसा है। शांति चाहिए, तो ईर्ष्या से बचो, संतोषामृत पान करो। ईर्ष्या से भी बचो, ईर्ष्यालुओं से अपनी रक्षा करो । धर्मात्माओं की रक्षा से ही धर्म, राष्ट्र और विश्व की रक्षा होगी। धर्म- धर्मात्माओं की रक्षा करो। धर्म ही मंगल है, धर्म ही उत्तम है, धर्म ही शरण है । सभा का संचालन श्रेयांस जैन ने किया। सभा मे प्रवीण जैन,अतुल जैन, सुनील जैन, विनोद जैन, वरदान जैन,दिनेश जैन, अशोक जैन, राकेश जैन, धनपाल जैन, आदि थे ।