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दान तीर्थ,साधु,धर्म,मंदिरों की रक्षा के लिए देने से तीर्थंकर नाम कर्म प्रकृति का बंध होता है – आचार्य श्री वर्धमान सागर जी

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उदयपुर – आज 10 लक्षण पर्व का आठवां दिन उत्तम त्याग धर्म है उत्तम क्यों लगा है यह धर्म साधुओं के धर्म है श्रावक भी अपनी  शक्ति, योग्यता अनुसार पालन कर सकता है त्याग की भावना और त्याग करने से उत्तम फल मिलता है ।प्रकृति का प्रत्येक कण त्याग का उपदेश देता है, वृक्ष अपने फलों को त्याग करते हैं , बीज  त्याग  करता है तो अनाज बनता है ,।वृक्ष के फल नदी वायु सब में जीव है बादल भी जल का त्याग करता है और जंगल की दावानल को बुझाता है समस्त विश्व में धर्म के अभाव में प्राणियों में विषय  कषाय  के दावानल से प्राणी जल रहे हैं। विषय कषाय की दावानल से बचाने लिए 10 धर्म सक्षम है।

यह मंगल देशना आचार्य शिरोमणी श्री वर्धमान सागर जी ने उदयपुर में धर्म सभा प्रगट की।

आचार्य श्री ने आगे बताया कि श्रावक को तीर्थ, साधु, धर्म, मंदिरों की रक्षा के लिए धन भोगों के बजाय दान देना चाहिए।

त्याग से सुख शांति प्राप्त होती है तीर्थंकर ,नारायण, प्रतिनारायण ने भी त्याग से फल प्राप्त किया है पद्म पुराण में भी उल्लेख है कि श्री राम का उदाहरण बताया कि भरत का त्याग  कि राज्य का संचालन सेवक बन कर किया और जैसे श्री राम जी वापस आए उन्होंने दीक्षा ग्रहण की। लाल बहादुर शास्त्री ने भी देश के संस्कृति के लिए त्याग किया तीर्थंकर महापुरुषों ने भी त्याग मार्ग पर चलकर सिद्धालय को प्राप्त किया त्याग धर्म ही मोक्ष मार्ग है, दान से पुण्य और हर्ष होता है ।भक्ति में त्याग कर शाश्वत सुख को प्राप्त कर सकते हैं श्रावक ही धर्म की रक्षा कर सकते हैं आहार दान सहित संयम योग द्रव्य का दान देकर साधु के जीवन का संरक्षण करें त्याग की भावना से मनुष्य जीवन को सार्थक करें कहीं गतियां का परिभ्रमण किया ,तब यह मनुष्य तन पाया। धन वैभव ऐश्वर्य प्राप्त कर विनश गई यह काया।सारे वैभव मिले पुण्य से, पुरुषार्थ करूं देकर दान।  जिसने जितना त्याग किया ,उसने अनुपम सुख को पाया है ।भगवान श्री महावीर ने कहा त्याग धर्म है, भोग अधर्म है ।जिस व्यक्ति के जीवन में भोगों का बाहुल्य रहता है और त्याग वृत्ति की न्यूनता रहती है, वह व्यक्ति अपने जीवन में सुख का अनुभव नहीं कर सकता है ।मनुष्य मान को त्याग देने पर प्रिय होता है, क्रोध को त्याग देने पर शोक नहीं करता, काम को त्याग कर अर्थवान हो जाता है ,और लोभ को त्यागने पर सुखी हो जाता है। वास्तव में त्याग में ही जीवन है त्यागी सभी को सम भाव से देखता है ,सभी की सेवा में लगा रहता है ।तत्वार्थ सूत्र में तप के बाद क्रम आता है त्याग का। मुख्यतः  आसक्ति या मोह का त्याग ही सबसे उत्कृष्ट और मुश्किल त्याग है। त्याग से शांति मिलती है यह मनोविज्ञान सम्मत सत्य है,  जो जीव परद्रव्यों के मोह को छोड़कर संसार , शरीर, और भोगों से उदासीन परिणाम रखता है उसके त्याग धर्म होता है। त्याग किसे कहते हैं ,संयम के योग्य ज्ञान आदि का दान करना त्याग कहलाता है ।अर्थात रत्नत्रय का दान करना त्याग हैअर्थात रत्नत्रय का दान करना । मिष्ट भोजन को ,राग द्वेष से उत्पन्न करने वाले उपकरण को, तथा ममत्व भाव के उत्पन्न होने से निमित्त वास्तिका को छोड़ देता है उसे मुनि के उत्तम त्याग धर्म होता है।

पूजन में पंक्तियां आती है दान चार प्रकार से ,चार संघ को दीजिए। मनुष्य का जीवन मंत्र दान है दान का कण  वह पारसमणी है जो लोहे को भी सोना बना देती है ।महानुभाव, दान करने का आग्रह क्यों किया गया है, इसलिए कि दान से इंसान का नसीब सुनता है ,और पुण्य का संचय होता है। दान के वक्त अगर उत्कृष्ट परिणाम विशुद्ध है तो तीर्थंकर प्रकृति का बंघ भी देखा जाता है। आचार्य कहते हैं दान चार प्रकार का होता है आहार दान, शास्त्र दान , अभय दान औषधि दान ।आहार दान देते समय दिखाई देता है जिसके भीतर सम्यकत्व की भावना होती है जिनसेनाचार्य कहते हैं राजा श्री वेग ने परम भक्त से विधिपूर्वक अर्क कीर्ति और अमितमति नाम के दो चारण रिद्धि धारी मुनियों को आहार दान दिया उसके फल स्वरुप भोग भूमि गए और परंपरा से श्री  शांतिनाथ तीर्थंकर हुए। शास्त्र दान ,ज्ञान के समान दूसरा कोई दान नहीं होता मनुष्य जन्म तो ज्ञान से ही पूज्य है ।आज का ज्ञान कल केवलज्ञान में बदल सकता है। अभय  दान वसतिका दान अर्थात आवास दान बिहार के समय साधुओं की रक्षा करना। ओषध दान रोग को दूर करने के लिए प्रासुक औषधी दान श्रेष्ठ है, क्योंकि रोग से यम ,नियम संयम बिगड़ जाते हैं ।निरोगी द्वारा ही तप ,व्रत, संयम ध्यान आदि कार्य संपादित किया जा सकते हैं। द्वारिका में श्री कृष्ण ने एक मुनिराज को ओषधि दान दिया जिसके प्रभाव से उन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का बंघ किया मुनिराज को आहार दान देने से अनेक दान समाहित हो जाते हैं।