उत्तर प्रदेश में ज़िला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में 75 में से 67 सीटें जीतकर भारतीय जनता पार्टी में जहां खुशी की लहर है, वहीं मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी ने चुनाव में गंभीर धांधली के आरोप लगाए हैं.
विधानसभा चुनाव से ठीक पहले हुए इन चुनावों में मिली प्रचंड जीत को बीजेपी विधानसभा चुनाव का सेमीफ़ाइनल बता रही है, लेकिन क्या ये चुनाव वास्तव में सेमीफ़ाइनल कहे जा सकते हैं?
यूपी के 75 ज़िलों में 22 ज़िलों के पंचायत अध्यक्ष पहले ही निर्विरोध निर्वाचित हो चुके थे जिनमें 21 बीजेपी के और इटावा में समाजवादी पार्टी का एक उम्मीदवार ज़िला पंचायत अध्यक्ष बिना विरोध ही चुन लिया गया.
जिन 53 ज़िलों में चुनाव हुए, उनमें बीजेपी ने 46 सीटें जीती हैं. समाजवादी पार्टी को कुल पांच सीटें मिली हैं जबकि रालोद और राजा भैया की पार्टी जनसत्ता दल को एक-एक सीटों पर जीत हासिल हुई है.
जीत से गदगद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा, “बीजेपी साल 2022 का विधानसभा चुनाव भी बड़े अंतर से जीतेगी, हम 300 से ज़्यादा सीटें जीतेंगे.’
नरेंद्र मोदी ने भी दी बधाई
ज़िला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में बीजेपी की जीत पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पार्टी कार्यकर्ताओं को बधाई दी है और इसका श्रेय यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को दिया.
पीएम मोदी ने ट्वीट किया, “यूपी ज़िला पंचायत चुनाव में भाजपा की शानदार विजय विकास, जनसेवा और क़ानून के राज के लिए जनता-जनार्दन का दिया हुआ आशीर्वाद है. इसका श्रेय मुख्यमंत्री योगी जी की नीतियों और पार्टी कार्यकर्ताओं के अथक परिश्रम को जाता है. यूपी सरकार और भाजपा संगठन को इसके लिए हार्दिक बधाई.”
दिलचस्प बात यह है कि अभी दो महीने पहले हुए ज़िला पंचायत सदस्यों के चुनाव में ज़िलों के कुल 3052 सदस्यों में से बीजेपी के महज़ 603 सदस्य ही जीते थे जबकि समाजवादी पार्टी के सदस्यों की संख्या 842 थी.
सबसे ज़्यादा सीटें निर्दलीयों ने जीती थीं और यही निर्दलीय सदस्य ज़िला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में बीजेपी के खेवनहार बन गए.
ज़िला पंचायत सदस्यों के चुनाव में कांग्रेस और बसपा ने भी उम्मीदवार खड़े किए थे लेकिन पंचायत अध्यक्ष के चुनाव से बहुजन समाज पार्टी ने किनारा कर लिया और कांग्रेस ने जालौन और रायबरेली में अपने उम्मीदवार खड़े किए लेकिन दोनों ही उम्मीदवारों को हार का सामना करना पड़ा.
पंचायत अध्यक्षों को सीधे नहीं चुनती जनता
यहां उल्लेखनीय बात यह है कि ज़िला पंचायत सदस्यों का चुनाव सीधे जनता करती है, जबकि अध्यक्षों का चुनाव जनता के मतों से निर्वाचित यही ज़िला पंचायत सदस्य करते हैं. ऐसे में ज़िला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव को विधानसभा चुनाव का सेमीफ़ाइनल कहना कितना सही है?
वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं, “पंचायत अध्यक्षों के चुनाव को तो क़तई सेमीफ़ाइनल नहीं कहा जा सकता. सीधे जनता द्वारा निर्वाचन होता नहीं है तो विधानसभा का सेमीफ़ाइनल कैसे हो जाएगा? हां, ज़िला पंचायत सदस्यों के निर्वाचन को ज़रूर सेमीफ़ाइनल कहा जा सकता है क्योंकि ये सदस्य सीधे जनता द्वारा चुने जाते हैं. सीधे तौर पर ये चुनाव सरकार के समर्थन से जीते जाते हैं. पिछले रिकॉर्ड भी यही कहते हैं और इस बार भी वैसा ही रहा. ख़ुद को ‘पार्टी विद डिफ़रेंस’ कहने वाली और अन्य पार्टियों पर आरोप लगाने वाली बीजेपी भी उसी लकीर पर चल पड़ी.”
सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि पिछले तीन बार से विधान सभा चुनाव से ठीक पहले पंचायत अध्यक्षों के चुनाव हो रहे हैं और दिलचस्प बात ये है कि सत्ता में रहते हुए जिस पार्टी ने पंचायत अध्यक्षों के ज़्यादातर पद अपनी झोली में किए, अगले विधान सभा चुनाव में उसे करारी हार का सामना करना पड़ा
उनके मुताबिक,”साल 2010 बसपा ने पंचायत अध्यक्षों के ज़्यादातर पद जीते थे लेकिन 2012 में विधानसभा चुनाव में उसे हार का मुंह देखना पड़ा. 2016 में समाजवादी पार्टी के 63 ज़िला पंचायत अध्यक्ष चुने गए थे लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में उसकी बुरी हार हुई.”
पहले भी उठे हैं सवाल
ज़िला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुखों के चुनाव पर पहले भी विवाद का साया रहा है और इस बार भी ये चुनाव विवादित रहे.
समाजवादी पार्टी ने बीजेपी सरकार पर गंभीर आरोप लगाए हैं कि उनकी पार्टी के उम्मीदवारों को ज़िलों में नामांकन ही नहीं करने दिया गया, मतदाताओं का अपहरण कर लिया गया और ज़िला प्रशासन और पुलिस अधिकारी ख़ुद इसमें शामिल रहे.
ख़रीद-फ़रोख़्त के आरोप तो इन चुनावों में पहले भी लगते रहे हैं और इस बार भी जमकर लगे हैं. लेकिन भारतीय जनता पार्टी इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज करती है. बीजेपी प्रवक्ता मनीष शुक्ल कहते हैं, “जिन लोगों ने फ़र्जी दावे किए थे कि उनकी पार्टी के ज़िला पंचायत सदस्य जीते हैं, अब वही आरोप लगा रहे हैं. सच्चाई यह है कि निर्दलीय सदस्य ज़्यादातर बीजेपी के समर्थक थे और उन्हीं के समर्थन से बीजेपी ने इतनी प्रचंड जीत हासिल की है.”
आरोप हैं कि ज़िला पंचायत अध्यक्ष चुनने वाले ज़िला पंचायत सदस्यों को एक-एक वोट के बदले लाखों रुपये दिए गए. ज़िला पंचायत सदस्यों के ग़ायब होने या फिर उन्हें बंधक बनाए जाने की ख़बरें मतदान के दिन तक आती रहीं.
परोक्ष निर्वाचन के ज़रिए चुने जाने वाले ज़िला पंचायत अध्यक्षों का निर्वाचन पहले भी विवादित रहा है और आमतौर पर यह कहा जाता है कि ‘अध्यक्ष पद पर अक़्सर उसी पार्टी के उम्मीदवार जीत जाते हैं जिस पार्टी की राज्य में सरकार होती है.’ यहां तक कि सरकार बदलने के बाद ज़िलों के पंचायत अध्यक्ष भी कई बार बदल जाते हैं यानी दोबारा जिस पार्टी की सरकार बनती है, उसी के समर्थक ज़िला पंचायत अध्यक्ष बन जाते हैं. इसके लिए ज़िला पंचायत सदस्य अपने अध्यक्ष के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव का सहारा लेते हैं.
समाजवादी पार्टी भी जब सत्ता में थी तब उस पर भी इन चुनावों में धांधली के जमकर आरोप लगे थे लेकिन अब सबसे ज़्यादा धांधली का आरोप समाजवादी पार्टी ही लगा रही है.
समाजवादी पार्टी की प्रवक्ता जूही सिंह कहती हैं, “ज़िला पंचायत सदस्य पहले निर्दलीय होते थे. उन्हें अपने पक्ष में लाने के लिए हम कोशिश करते थे लेकिन ज़िलों को प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी विपक्षी उम्मीदवारों का घर गिराएं, मुक़दमे लादने की धमकी दें, शांति पाठ करा देंगे जैसी स्तरहीन भाषा का सार्वजनिक तौर पर प्रयोग करें, विरोधियों को पर्चा ही न भरने दें, ऐसा कभी नहीं हुआ है.”
भारतीय जनता पार्टी निर्दलीय उम्मीदवारों के समर्थन का दावा भले ही कर रही हो लेकिन ज़िला पंचायत सदस्यों को पार्टी का अधिकृत उम्मीदवार बनाकर मैदान में उतारने की शुरुआत उसने ही की है. यही वजह है कि इस बार अन्य दलों ने भी अपने अधिकृत उम्मीदवारों की सूची जारी की.
इस सूची के आधार पर जब गत दो मई को ज़िला पंचायत सदस्यों के नतीजे निकले तो बीजेपी को बड़ी हार का सामना करना पड़ा.
पार्टी प्रवक्ता मनीष शुक्ल कहते हैं, “निर्दलीय सदस्य हमारी ही पार्टी के थे. किन्हीं कारणों से उन्हें टिकट नहीं मिला तो वो निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ गए लेकिन जीतने के बाद उन्होंने फिर से पार्टी का समर्थन किया.”
लेकिन बीजेपी उम्मीदवारों को ही हराकर आए निर्दलीय उम्मीदवार उसी पार्टी के समर्थक बन जाएंगे, यह बात किसी के गले नहीं उतरती है. हालांकि सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि इसमें कोई आश्चर्य नहीं है.
उनके मुताबिक, “सरकार में रहने वाली पार्टी सदस्यों को जिस तरह से अपने पक्ष में करने की कोशिशें करती है, उस स्थिति में किसी का समर्थक न बने रहना बड़ा मुश्किल होता है. पैसों के लालच से लेकर हर तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं. एक ज़िले में तीस-चालीस लोगों का वोट लेना होता है और जब सरकार चाह ही लेती है तो उसे हासिल ही कर लेती है. लेकिन ये ज़रूर है कि ‘पार्टी विद डिफ़रेंस’ का दावा करने वाली पार्टी भी यदि ऐसे आक्षेप लग रहे हैं तो तो इससे मतदाताओं को निराशा ज़रूर होगी.”