Home धर्म - ज्योतिष इस धरती के प्रथम शाश्वत तीर्थ अयोध्या का महत्वपूर्ण विकास*

इस धरती के प्रथम शाश्वत तीर्थ अयोध्या का महत्वपूर्ण विकास*

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जयपुर – ‘‘जैन संस्कृति की आन-बान-शान और हमारी पहचान, सर्वाधिक महत्वपूर्ण तीर्थ, शाश्वत तीर्थंकर जन्मभूमि अयोध्या का विकास सर्वोच्च जैन साध्वी दिव्यशक्ति भारतगौरव गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से चल रहा है, जिसमें समस्त दिगम्बर जैन समाज को तन-मन-धन से सहयोग देकर पुण्य अर्जित का आह्वान निवेदित है।’’लेखक-डॉ. जीवन प्रकाश जैन, मंत्री पूरे विश्व भर में जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी परमपूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी को साक्षात् सरस्वती स्वरूपा कहें या पवित्रतम चरणद्वय से सहित सिद्धहस्त साधिका कहें, उनकी इस शक्ति के साक्षात् परिणाम इस देश ने अनेक बार प्रत्यक्ष रूप से देखे, समझे और आभास किए हैं। पूज्य माताजी की शक्ति को चाहे जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर तीर्थ में देखें या ऋषभगिरि-मांगीतुुंगी तीर्थ के विशाल पर्वत पर अखण्ड पाषाण में विश्व की सबसे ऊँची १०८ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव प्रतिमा में देखें या फिर उनके द्वारा रचित ५०० से अधिक ग्रंथों के विशाल साहित्य समूह में देखें, हर व्यक्ति इन कार्यों से अचम्भित होकर स्तब्ध, आश्चर्य और प्रगाढ़ आस्था के आलोक में डूब जाता है। 

आज ८९ वर्षीय अपने योग्य जीवन को ७० वर्षीय साधना से चमत्कार स्वरूप बनाने वाली पूज्य माताजी के ऐसे शक्ति-आभास इस समाज ने समय-समय पर अनेक बार देखें हैं, जब अनूठे, विरले और असंभव जैसे कार्य भी इस धरती पर संभव होते नजर आए हैं। ठीक इसी क्रम में पुन: इस ८९ वर्षीय पायदान पर पूरे समाज ने फिर एक बार ऐसा आश्चर्य, चमत्कार और वरदान तब देखा, जब ३१ दिसम्बर २०२२ को अयोध्या जैन तीर्थ की पावन धरती पर पूज्य माताजी के पवित्र चरणयुगल पड़ते ही यह धरती जाग उठी। परिणामस्वरूप मात्र एक अत्यन्त अल्प अंतराल में ही भगवान ऋषभदेव जन्मभूमि दिगम्बर जैन तीर्थ-बड़ी मूर्ति परिसर में देखते ही देखते ऐसा विकासीय बदलाव आता गया और अप्रैल ३० से मई ७, २०२३ की तारीख में यहाँ ऐतिहासिक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं महामस्तकाभिषेक महोत्सव से अयोध्या को देश ही नहीं पूरी दुनिया में विशाल जैन तीर्थ का स्वर्णिम सोपान प्राप्त हुआ । पूरे विश्व जैन समाज की दृष्टि इस चमत्कार पर और इस तीर्थ के महत्त्व पर लगातार बनी रही और अब भी निरंतर ही यह तीर्थ अपने नये विकास को लेकर चरम की ओर बढ़ रहा है । इस धरा पर कभी-कभी कोई विरली ही ऐसी घड़ियाँ पुण्योदय में आ जाती हैं कि जो भविष्य के लिए आज मील का पत्थर बन जाती हैं। एक लम्बा समय इन आशाओं से बंधा हुआ था कि क्या कभी अयोध्या का ऐतिहासिक विकास इस जैन समाज को प्राप्त हो पाएगा ? लेकिन कभी इन आशाओं पर निराशा का अंकुश नहीं लग पाया और सतत ही ये आशाएँ सबल होते हुए सन् २०२३ में इतनी प्रबल हो गई कि आज इस जैन संस्कृति को भगवान ऋषभदेव, भगवान अजितनाथ, भगवान अभिनंदननाथ, भगवान सुमतिनाथ एवं भगवान अनंतनाथ, वर्तमान के इन पाँचों तीर्थंकरों की जन्मभूमि अयोध्या जैसा महातीर्थ पुन: एक ऐसे जागृत स्वरूप में प्राप्त हो गया कि अब हम भी गर्व के साथ इस बात का आगाज कर सकते हैं कि अयोध्या हमारे जैनधर्म के ५ तीर्थंकरों की ही जन्मभूमि नहीं अपितु यह शाश्वत तीर्थंकर जन्मभूमि के रूप में अनादिकाल से पूज्य और मान्य रही है। 

ऐसा भी नहीं कि अयोध्या में हमारा अस्तित्व नहीं था लेकिन जो अस्तित्व था, वो इतने गौरवशाली स्वरूप में नहीं था, जिसको लेकर हम अपने अनादिनिधन जैनधर्म की गरिमा को जन-जन के सामने प्रस्तुत कर सकें। यह विकास की दृष्टि आज नहीं अपितु सर्वप्रथम सन् १९६५ में आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज के उन दिव्य नयनों में प्राप्त हुई, जिनसे उन्होंने इस अयोध्या के लिए नई आशाओं और विकास का स्वप्न देखकर ३१ फुट उत्तुंंग भगवान ऋषभदेव की विशाल प्रतिमा विराजमान करवाई और सुंदर जिनमंदिर का भी निर्माण हुआ। इससे पूर्व आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज की ही कृपा प्रसाद से कटरा मोहल्ले के भगवान सुमतिनाथ जिनमंदिर में भगवान आदिनाथ-भरत-बाहुबली की सुन्दर और विशाल जिनप्रतिमाओं का पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव भी आचार्य श्री के ही सान्निध्य में सन् १९५२ में सम्पन्न हुआ था । अत: आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ने सतत अपनी दृष्टि अयोध्या की तरफ रखी और उसके बाद उन्हीं के करकमलों से क्षुल्लिका दीक्षा प्राप्त उनकी शिष्यारत्न वर्तमान की गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी ने सन् १९९४-१९९५ से इस अयोध्या की जीर्ण-शीर्ण स्थिति को अपनी दृष्टि में प्रमुख लक्ष्य पर लिया और सतत चरैवेती-चरैवेती के सिद्धान्त पर चलते हुए उन्होंने धीरे-धीरे इस अयोध्या के विकास को एक नया अंदाज प्रदान किया। सर्वप्रथम बड़ी मूर्ति जिनमंदिर परिसर में त्रिकाल चौबीसी जिनमंदिर, समवसरण जिनमंदिर आदि के निर्माण, तीर्थ पर धर्मशाला, भोजनशाला आदि समुचित व्यवस्थाओं का प्रबंध आदि के साथ क्रमश: पाँचों भगवन्तों की टोकों पर सुंदर-सुंदर जिनमंदिरों के निर्माण भी सम्पन्न हुए। 

वर्तमान में हो रहा विकास कार्य- 

पुन: अब इस जैन संस्कृति के आद्य केन्द्र को नई ऊँचाईयाँ प्रदान करने के लिए पूज्य माताजी ने सन् २०१९ में अयोध्या तीर्थक्षेत्र कमेटी व समाज को बड़ी मूर्ति परिसर विस्तृत रूप से सजाने-संवारने की प्रेरणा प्रदान की, जिसके फलस्वरूप आज हम सबके मध्य ३१ फुट उत्तुंग भगवान भरत प्रतिमा से समन्वित विशाल जिनमंदिर, भगवान ऋषभदेव के मोक्ष प्राप्त १०१ पुत्रों का विश्वशांति जिनमंदिर, रत्नमयी प्रतिमाओं वाला तीस चौबीसी जिनमंदिर, तीनलोक रचना एवं सर्वतोभद्र महल जैसी सुन्दर-सुन्दर कृतियाँ विकासशील नजर आ रही हैं। इतना ही नहीं नवम्बर २०१९ में पूज्य माताजी द्वारा साक्षात् सान्निध्य देकर भगवान भरत जिनमंदिर और विश्वशांति जिनमंदिर का शिलापूजन भी सम्पन्न कराया गया और पुन: इस तीर्थ के विकास की ललक लेकर ८९ वर्ष की आयु में हस्तिनापुर से ३१ दिसम्बर २०२२ को पूज्य माताजी का आगमन अयोध्या में हुआ और ३० अप्रैल से ७ मई २०२३ तक यहाँ भव्य तीस चौबीसी तीर्थंकर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं महामस्तकाभिषेक महोत्सव सम्पन्न होकर यह जैन संस्कृति का शाश्वत तीर्थ अयोध्या नये प्रकाश को प्राप्त हुआ। 

इसी नये प्रकाश का विस्तृत वर्णन करने के लिए पाठकों के समक्ष यह आलेख प्रस्तुत किया गया है।  साथ ही सभी बंधुओं से यह भी निवेदन है कि इस तीर्थ के विकास में तन-मन-धन के साथ अपना सहयोग प्रदान करें। क्योंकि जैनधर्म में दो ही ‘‘शाश्वत तीर्थ’’ हैं जिनमें प्रथम शाश्वत तीर्थंकर जन्मभूमि अयोध्या है एवं द्वितीय शाश्वत तीर्थंकर निर्वाणभूमि सम्मेदशिखर जी कहलाती है। अत: दिगम्बर जैन समाज के समस्त बंधुजन अब इस शाश्वत तीर्थ अयोध्या के महत्वपूर्ण विकास में अपना योगदान अवश्य प्रदान करें।