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कल्याण में बाधक : कषाय

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बड़ौत – दिगम्बराचार्य श्री गुरु विशुद्धसागर जी ने धर्मसभा में सम्बोधन देते हुए कहा कि – क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं। जो इनके वश होता है, वह क्षण भर में अशांत हो जाता है। चार कषाय के वशीभूत मानव अनर्थ-पर-अनर्थ कर स्व को संसार में भटकाना है। संसार से तिरना है तो कषायों से बचो। चारों ही कषायें चार गतियों में भ्रमण कराती हैं। कषाय के वश मानव पापों में संलग्न होता है। कषाय ही कलंकित करती हैं। कषाय ही कल्याण में बाधक हैं। आत्म-कल्याण करना चाहते हो तो पुरुषार्थ पूर्वक कषायों से बचो । पापों का सम्राट् लोभ है। लोभ के वश लोग अपने माता-पिता से भी दूर हो जाते हैं। क्रोध ज्वाला है, जो स्व-पर को जलाकर भष्म कर देता है। मान महा-विष है, जो सर्व-नाश करा देता है। माया अनर्थकारी है, जो नीच गतिका कारण है । संयमी का आभूषण समता है। समता ही परम- धन है। शीलवान का श्रृंगार समता है। श्रामण्य की पहचान ही समत्व भाव है। समता के अभाव में साधुत्व नहीं होता। समता ही साधु का चिह्न है। समता परम धन है। समतावान मानव ही महा- मानव बनता है। सज्जन पुरुष कषाय के वश नहीं होते । मौन सिद्धि प्रदान करता है। मौन साधना से आत्मिक शक्तियाँ जाग्रत होती हैं। मौन का अभ्यास करो। मौन से कषाय मंद होती हैं