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गुरु से अपनों से प्रंशसा सुनने का भव मत करना – मुनि पुगंव श्री सुधासागरजी महाराज

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श्रमण संस्कृति संस्थान के वच्चो ने दिखाई प्रतिभा

श्रमण संस्कृति संस्थान में है जिनालय की जरूरत

आगरा – आज गुरु से अपनों से प्रसंशा सुनने का भाव मत करना यदि तुम्हारे गार्जियन आपकी प्रसंशा करने लग जायेंगे तो आपका विकास रुक जायेगा एक पिता अपने बेटे दारा निर्मित चित्र को देखकर उन्हें रिजेक्ट कर देता बेटे ने सौ चित्र बनाये इसके बाद एक सौ एक वा चौराहे पर लगा कर लोगों के साथ अपने पिता की प्रसंशा तो बटोर ली लेकिन विकास रुक गया पिता ने बेटे द्वारा बनाये सभी चित्रो को दिखकर उनके सुधार की पूरी कहानी सामने रखी यदि पिता दोषों का निवारण ना करें तो बेटे के गुण प्रकट नहीं होंगे बेटे के गुणो को प्रकट करने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देता है मध्यप्रदेश महासभा संयोजक विजय धुर्रा ने बताया कि आध्यात्मिक संत निर्यापक श्रमण मुनि पुंगव श्रीसुधासागरजी महाराज ससंघ के चातुर्मास में रोज रोज देशभर से भक्तों का तांता लगा है इसी वीच श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर की शाखा खनियांधाना से वच्चो का दल पहुंचा और मुनि पुंगव के समक्ष अपनी प्रस्तुति दी साथ ही जो ज्ञान संस्थान से पा रहे हैं उसकी वानगी भी दी इस दौरान श्रमण संस्कृति संस्थान खनियांधाना के वच्चो को निशुल्क शिक्षा के साथ गोद लेने वालो का तांता लग गया जो वच्चो को गोद लेना चाहते हैं वे संस्थान से सम्पर्क कर सकते हैं 

मन चाहे वरदान ही अधोगति की ओर ले जाता है

उन्होंने कहा कि अभी एक दिन कहा था किमिक्षक पाने की जो चाह है वहीं शूद्र में पहुंचती है जव मैं चाहूं खाने की इच्छा होगी वह खाऊंगा जहां जो चाहूं वह करूंगा ये पशुओं के लक्षण है ये छोड़ देना ऐसे ही काल में और दृव्य में यही करना है सब छोड़ देना जो सोचोंगे किमिक्षक इच्छाओं का वरदान कभी मत लेना ऐसा वरदान कभी नहीं लेना चाहें तेरा कर्म के उदय से माटी सोना हो जाये उन्होंने कहा कि आपने किस किस से पूछा कि जिनालय में जाने की अनुमति की आवश्यकता नहीं अभिषेक आदि आवश्यकता नहीं है सीधे भगवान तक पहुंच है जन्मते जायते सुद्रा जैनी के यहां शूद्र का जन्म सागार धर्मामृत में स्पष्ट लिखा है धर्मिक अनुष्ठान नहीं कर सकता मैं कुछ भी सोचूं वह होना चाहिए वहीं शूद्र है तुम दुनिया के सबसे निक्रृट योनि में जाओगे मैं जो सोचूं वहीं हो तुम कभी कभी वुरे कार्य का सोचूं वह हो जाये मुझे भी ले लेना क्या साधु को यह भाव नहीं आ सकता है इसी भाव को कंट्रोल करना है जो में जो बोलूं जहां मैं जहां जाना चाहूं खाने ये समझ लेना तिर्यच की सबसे निकृष्ट पर्याय में पहुंच गए