बड़ौत – जैन दिगम्बराचार्य श्री विशुद्धसागर जी गुरुदेव ने ऋषभ सभागार मे धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि- सुख चाहिए तो दुःख के कारणों का त्याग करना होगा। जब तक विचारों की पवित्रता, आचरण की निर्मलता नहीं होगी तब तक आत्मशांति सम्भव नहीं है। संगति का चित्त पर गहरा प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति जैसी संगति करेगा, जैसी वार्ता करेगा, जैसा चिंतन मनन करेगा, जैसे चित्र देखेगा, वैसा ही उसका चित्त होगा। बाह्य-निमितों का आन्तरिक भावों पर प्रभाव पड़ता है । लक्ष्य के प्रति आस्था, स्वयं के प्रति बहुमान, लक्ष्य-अनुसार पुरुषार्थ, क्षेत्र और समय अनुसार कार्य करना चाहिए। सही दिशा में किया गया सम्यक्- पुरुषार्थ कभी भी व्यर्थ नहीं जाता है। लक्ष्य के प्रति प्रतिक्षण आस्था होना चाहिए। लक्ष्य से भटका मानव कभी भी सफल नहीं हो सकता है। विपरीत पुरुषार्थ ऐसा ही है जैसे रेल को पेलकर तेल निकालना, पाषाण पर बीज बोकर फसल उगाना। समीचीन श्रम ही सिद्धि में सहायक होता है।
जो व्याख्यान शब्दों से नहीं हो सकता है, उसे शून्य के द्वारा कहा जाता है। शून्य महाशक्ति है। आत्मा का शून्य स्वभाव है। ब्रह्मस्वभाव ही, शून्य शक्ति है। अंक पर शून्य आते ही उसे अंक की कीमत दस गुणी हो जाती है। शून्य के अभाव में विशिष्ट व्याख्या असम्भव है। योगी शून्य-शक्ति से ही सिद्धत्व प्राप्त करता है। शून्य से ही चमत्कार और अविष्कार होते हैं। शून्य की रक्षा से ही विश्व शांति सम्भव है पानी की बूंद ‘शून्य’ । अंकों पर शून्य। आत्म- स्वभाव ‘शून्य'” । पुरुष की वीर्यशक्ति ‘शून्य’ । योगी का ध्येय ‘शून्य’। आत्म-विकास के लिए जगत्-प्रपंचों से शून्य होना पड़ेगा। विद्यार्थी को प्रमादसे शून्य होना पड़ेगा। संयमी को असंयम से शून्य होना होगा। सुख- शांति प्राप्त करना है, तो शून्य की रक्षा करो। शून्य से ही संतान का जन्म होता है । जैसे रत्न मोती, स्वर्ण-चांदी की रक्षा करते हो, वैसे ही साहित्य-सम्पत्ति की रक्षा करो। साहित्य से ही हमारे संस्कार, संस्कृति और तत्त्वज्ञान सुरक्षित रह सकता है। समाज के लिए साहित्य अमूल्य सम्पत्ति है। साहित्य के अभाव में सम्मान की रक्षा सम्भव नहीं है । सभा का संचालन पंडित श्रेयांस जैन ने किया। सभा मे प्रवीण जैन, अतुल जैन, मनोज जैन, सुनील जैन, वरदान जैन, राकेश सभासद,पुनीत जैन, दिनेश जैन, राजेश जैन, विनोद जैन आदि थे ।