रायपुर – परम पूज्य आचार्य श्री 108 अतिवीर जी मुनिराज ने क्षमावाणी महापर्व की व्याख्या करते हुए कहा कि वर्तमान में सॉरी बोलना एक फैशन-सा हो गया है| कुछ भी गलत होता है तो मुख से तुरंत सॉरी निकल जाता है| परन्तु क्या क्षमा का वास्तविक रूप बस इतना ही है? क्या बस वाणी से क्षमा मांग लेना ही वास्तव में क्षमावाणी है? जब तक क्षमा की तरंगे अंतरंग की गहराईयों में डुबकियां नहीं लगाएंगी, तब तक बहिरंग मात्र से क्षमा याचना करना निश्चित ही निरर्थक है| जिनागम के सार को समझेंगे तो पता चलेगा कि क्षमा मांगने की वस्तु नही बल्कि धारण करने की वस्तु है| क्रोध की ज्वलंत अग्नि को क्षमा के निर्मल जल से ही शांत किया जा सकता है| जो व्यक्ति क्षमाशील है वही समाज में उच्च पद प्राप्त कर सकता है तथा सबके दिलों में अपना स्थान बना सकता है| क्षमा को कभी भी प्रगट नहीं किया जाता, वह तो सदा से हम सब के भीतर विद्यमान है। बस जरुरत है तो उसके ऊपर चढ़े कषायों के परदे को हटाने की | वर्तमान में हम सब कषायों को मंद किए बिने ही क्षमा को प्रगट करने की चेष्टा कर रहे हैं| क्षमा तो आत्मा का स्वभाव है अतः किसी वस्तु को अपने स्वभाव में आने के लिए कोई कार्य नहीं करना पड़ता| हमें पुरुषार्थ करना है तो कषायों को हटाने का, जिससे भीतर बैठी क्षमा स्वतः ही उत्पन्न हो जाएगी| आचार्य श्री ने आगे कहा कि यदि क्षमा का भाव होता तो महाभारत न होती, यदि क्षमा का भाव होता तो रामायण की रचना न होती| भगवान पार्श्वनाथ स्वामी के जीवन से क्षमा का जीवंत उदाहरण मिलता है| यह नहीं देखना कि सामने वाला हमसे क्षमा मांग रहा है या नहीं, सामने वाला हमें क्षमा करेगा या नहीं| हमें तो केवल अंतरंग से क्षमा के भाव प्रगट करने हैं और समय रहते अपनी आत्मा की कालुषता को मिटाना है|
वर्ष में तीन बार पर्युषण पर्व के पश्चात् क्षमावाणी पर्व का आगमन होता है| यह इसीलिए है जिससे कि हम बार-बार अपने कषायों को मंद करते रहें और अनंतानुबंधी कर्मों का बंध न हो| दस धर्मों की आराधना से आत्मा में उत्पन्न समग्र पवित्र भाव का वाणी में प्रकटीकरण ही वास्तविक क्षमावाणी है| क्षमा मांगना या क्षमा करना, यह दोनों व्यक्तिगत व स्वाधीन क्रिया है| हम लोग इतने मायाचारी हैं कि अपनी गलती को मजबूरी का नाम देकर ढक देते हैं तथा दूसरे की गलती को कमजोरी मानकर उसे दण्डित करने चल पड़ते हैं| आज हम वाणी से तो माफ़ कर देते हैं परन्तु मन में निर्मलता गौण है| क्षमा करने के बाद हमारा मन बच्चे की तरह निर्विकल्प हो जाना चाहिए| प्रकृति भी क्षमा का ही सन्देश देती है, हम लोग धरती को प्रतिदिन कष्ट देते हैं, पेड़-पौधों का संहार करते है, पशु-पक्षियों पर ज़ुल्म करते है| परन्तु आज तक किसी से भी क्षमा नहीं मांगी और प्रकृति इतनी उदारमना है कि कोई शिकवा नहीं करती | आचार्य श्री ने आगे कहा कि हमें सर्वप्रथम स्वयं से क्षमायाचना करनी चाहिए कि जीवनभर अपने शुद्ध-स्वरुप का चिंतन किये बिना ही गुज़ार दिया और अपनी आत्मा के साथ अन्याय करते हैं| शर्तों के साथ क्षमायाचना करने का कोई औचित्य नहीं है, क्षमा तो विनम्रता पूर्वक मांगी जाती है| झुकना सिर्फ जीवित व्यक्ति के बस का काम है अथवा जो झुकता नहीं है या अकड़ता है वो केवल एक मुर्दे के समान है| दक्षिण अफ्रीका की एक क़ानूनी संस्था ने 105 वर्ष के बाद अपनी गलती का एहसास करते हुए महात्मा गाँधी से सार्वजानिक रूप से माफ़ी मांगी| आचार्य श्री ने आगे कहा कि क्षमा आत्मबल को पुष्ट करती है, यह क्षमा जीवन की महानता की परिचायक है, यह क्षमा परम सुख सरिता है, यह क्षमा आत्मदर्शन का दिव्य दर्पण है, यह क्षमा महापुरुषों की जीवन संगिनी है| क्षमा भावों से परिपूर्ण होने पर यह शरीर और हमारी आत्मा – दोनों की स्थिति प्रसन्नता से भर जाती है| क्षमा आत्मा का सर्वश्रेष्ठ गुण है| क्षमायाचना करें और अपने मान का क्षय करें| नम्र बनकर क्षमायाचना करें और उदार होकर क्षमा प्रदान करें | सभी जीवों को मित्र बनाकर बैर का विसर्जन करें और विश्व-प्रेम की सितार अपने हृदय में गुंजायमान करें | अतः मन की मलिनता, वाणी की वक्रता और काया की कुटिलता त्याग कर सभी आत्माओं के साथ शुद्ध अंतःकरण पूर्वक क्षमायाचना करें|अनजाने में बिन चाहे भी, भूल हमसे हो सकती है, जीवन के कुछ क्रूर पलों में, बुद्धि भी सो सकती है। ऐसे उन अनजान पलों की, भूल हमारी माफ़ करें, क्षमा पर्व पर क्षमादान दें, कलुष हृदय का साफ़ करें॥