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फूलन देवी की कहानी देखकर उन्‍होंने पूछा था, ‘का मर्दवा, मजा आवा?

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आज फूलन देवी की पुण्‍यतिथि है और आज एक बार फिर मैं ये कहानी सुनाना चाहती हूं.

कुछ कहानियां ऐसी होती हैं, जिसे लिखकर भी हम उससे मुक्‍त नहीं हो पाते. वो बार-बार लौट-लौटकर आती हैं. जितनी बार जिस भी संदर्भ में फूलन देवी का नाम आए, मुझे याद आता है कि बड़े होते हुए मेरे आसपास की दुनिया ने कैसे उस औरत से मेरा परिचय करवाया था और बड़े होकर मैंने कैसे उस औरत को जाना. दोनों में इतना फांक है कि जितना अंधेरे और उजाले में होगा, जितना सांस लेने और सांस रुक जाने में है.

1994, इलाहाबाद
एक दिन अखबार में एक स्‍त्री डाकू की तस्‍वीर छपी थी. वो 11 साल बाद जेल से रिहा हुई थी. प्रदेश में सपा की सरकार थी और मुलायम सिंह यादव मुख्‍यमंत्री थे. उन्‍होंने उस महिला डाकू पर लगे सारे आरोप खारिज कर दिए थे और उसे आजाद कर दिया था. इस खबर के साथ बॉक्‍स में उस औरत की पूरी कहानी लिखी थी. उसने बहमई के 22 ठाकुरों को गोली मार दी थी. कहानी में लिखा था कि उन ठाकुरों ने उसके साथ रेप किया था और गांव में नंगा घुमाया था. उत्‍तर प्रदेश के हिंदी अखबार में वो कहानी कुछ ऐसे नहीं छपी थी कि याद रह जाए. लेकिन तथ्‍यों को पढ़कर मन में जो एक चित्र बना, वो ये था कि एक औरत थी. गांव की गरीब, कमजोर, छोटी जात वाली औरत. ऊंची जात वाले मर्दों ने उसके साथ रेप किया. फिर एक दिन वो बंदूक लेकर गई और उन सबको गोली से उड़ा दिया. अगर आप एक लड़की हैं, भले ही सिर्फ 13 साल की हैं, लेकिन लड़की हैं और एक ऐसी दुनिया में बड़ी हो रही हैं, जहां 13 साल की उम्र तक ये कई बार हो चुका है कि भीड़ में, मेले में, घर में, गांव में, भीड़ भरे टैंपो में मर्दों ने इधर-उधर छूने की कोशिश की, छाती पर हाथ मारा तो भले आपको रेप का ठीक-ठीक मतलब न पता हो, लेकिन उस डाकू औरत की ये कहानी पढ़कर ‘अच्‍छा सा’ महसूस होगा. मुझे भी हुआ था. वरना तो आए दिन अखबार में ऐसी खबरें छपती ही थीं कि ‘महिला के साथ रेप, गांव में नंगा करके घुमाया.’ लेकिन इसके पहले कब ऐसी खबर छपी थी कि ‘महिला ने नंगा करके घुमाने वालों को गोली से उड़ाया.’ गोली से उड़ाने वाली उस डाकू का नाम फूलन देवी था, जिसे 2011 में टाइम मैगजीन ने इतिहास की 16 सबसे विद्रोहिणी स्त्रियों की सूची में रखा था. टाइम ने जिसे इतनी इज्‍जत बख्‍शी, उसका अपना मुल्‍क उसे किस तरह देख रहा था?

गंगा घाट पर बसा वो रसूलाबाद मोहल्‍ला यादवों का गढ़ था, जहां गली के आखिरी छोर पर एक यादव जी के बड़े से मकान में हम किराएदार थे. उस गली में जौनपुर और आासपास के इलाकों से आए कॉम्‍पटीशन की तैयारी कर रहे ढेर सारे यादव लड़के रहते थे. नजदीक के सिनेमा हॉल अवतार में वो फिल्‍म लगी थी, ‘बैंडिट क्‍वीन’, जिसके बारे में मुझे सिर्फ इतना पता था कि वो फूलन देवी पर बनी है. एक दिन मैंने छत पर चार यादव लड़कों को बात करते सुना कि ‘का मर्दवा, ऊ फिल्‍म देख आए. मजा आवा.’ फिर उनके जोर के ठहाकों की आवाज. दबे-छिपे कई बार आसपास के मर्दों को उस फिल्‍म की बात करते सुना, लेकिन हर बार उस बात में एक विचित्र बेशर्म हंसी होती. यहां मैंने बार-बार उन लड़कों के यादव होने का जिक्र इसलिए किया है कि कास्‍ट आइडेंटिटी और पॉलिटिक्‍स से भी ये मेरा शुरुआती साबका था. उस गली का हर व्‍यक्ति अपनी जाति का तमगा अपने माथे पर सजाए घूमता था. ‘मिले मुलायम-काशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम’ के नारों से पूरी गली गूंजी थी. बैंडिट क्‍वीन का कास्‍ट कनेक्‍शन तो मुझे कई साल बाद जाकर समझ में आया. और ये भी कि अपनी सारी पिछड़ी पहचान के बावजूद मर्द आखिर मर्द है. जाति के जिस तार से वो मर्द दूसरे मर्दों के साथ जुड़ाव महसूस करते थे, फूलन के लिए नहीं किया. फूलन की कहानी देखकर भी अपने दूसरे मर्द दोस्‍त से यही कहा, ‘का मर्दवा, मजा आवा.’ और दूसरी ओर आज भी अनेकों बार अपने प्रिवेलेज्‍ड कास्‍ट की गाली खाने वाली मैं थी, जो 14 साल की उम्र में फूलन की कहानी के साथ ‘का मर्दवा, मजा आवा’ सुनकर डर गई थी. ये ऐसा ही था कि घर में किसी के मरने पर शहनाई बजाई जा रही हो.

हालांकि तब तक भी मुझे पता नहीं था कि वो फिल्‍म आखिर है क्‍या.

मैं यूनिवर्सिटी में पढ़ती थी. उस दिन क्लास करने का मन नहीं था. मैं और मेरी एक दोस्त क्लास बंक करके सिविल लाइंस के राजकरन पैलेस सिनेमा हॉल पहुंचे एक फिल्म देखने- ‘बैंडिट क्वीन’. तब मैं सिर्फ साढ़े अठारह साल की थी.

गेटकीपर ने हमें रोका. बोला, ‘आपके देखने लायक नहीं है.’ हम दोनों थोड़ा घबराए हुए भी थे. एक बार को लगा कि लौट चलें. लेकिन हम लौटे नहीं. हिम्मत जुटाई और कहा,
‘नहीं हमें देखनी है फिल्म.’
‘एक सीन बहुत खराब है मैडम.’
‘कोई बात नहीं.’