शामली में प्लास्टिक पर प्रतिबंध के बाद डिस्पोजल क्राकरी का कारोबार बंदी के कगार पर है। ऐसे में शहर के एक उद्यमी ने इसका बेहतर विकल्प तलाशा है। उद्यमी ने गन्ने की खोई से डिस्पोजल क्राकरी बनाने का प्लांट लगाया है। ये क्राकरी प्रदूषण से मुक्ति दिलाएगी। शहर के उद्यमी संदीप गर्ग ने बताया कि उनकी इंडस्ट्रीयल एरिया में 26 साल से लकड़ी की चम्मच बनाने की फैक्टरी थी। प्लास्टिक पर प्रतिबंध के बाद डिस्पोजल क्राकरी की फैक्टरियां बंद होने लगी थीं। इसका असर उनके काम पर आने लगा था। उन्होंने इंटरनेट पर सर्च कर किसी नए विकल्प की तलाश शुरू की। इसी से उन्हें पता चला कि गन्ने की खोई की लुगदी से डिस्पोजल क्राकरी संभव है। इसे बनाने की मशीनरी भी मार्केट में उपलब्ध हैं। उत्तराखंड के लाल कुंआ में इस लुगदी का मार्केट भी हैं। ये लुगदी पेपर मिलों में काम आती है। इसके बाद उन्होंने इसका प्लांट लगाने का मन बनाया। दिल्ली से इसकी मशीनें खरीदी, उत्तराखंड के लाल कुंआ से खोई की लुगदी की सीटें मंगाई और पिछले महीने ही ये प्लांट शुरू कर दिया। एक महीने में करीब 10 से 12 लाख प्लेटें बनाने की इसकी क्षमता है। प्लास्टिक की क्राकरी प्रतिबंधित होने के बाद अब लोगों का रुझान इसकी तरफ बढे़गा। संदीप का दावा है कि देश में इस तरह के मुश्किल से 10-15 प्लांट होंगे।
इस तरह होता है निर्माण
गन्ने की खाई की लुगदी की सीट लाकर उन्हें पानी में घोलकर घोल बना लिया जाता है। इसके बाद मोल्डिंग मशीनों में डालते हैं। जिस साइज की प्लेट या क्राकरी चाहिए उसी साइज के खांचे मशीन में फिट कर दिए जाते हैं। इस तरह प्लांट में ये क्राकरी तैयार हो जाती है। फिलहाल वह प्लेट और कटोरी ही बना रहे हैं।
थोड़ी महंगी मगर प्रदूषण से बचाएगी
उद्यमी संदीप का दावा है कि अभी देश में इस तरह के केवल 10 या 15 ही प्लांट हैं। दरअसल प्लास्टिक क्राकरी की तुलना में ये थोड़ी महंगी पड़ती है। एक ही साइज की जो प्लास्टिक की प्लेट ढाई से तीन रुपये में आती है इसकी प्लेट साढ़े चार रुपये के आसपास होगी, प्लास्टिक की प्लेट को खुले में फेंकने पर ये महीनों तक नष्ट नहीं होगी, जलाने पर प्रदूषण फैलाएगी जबकि गन्ने की खोई की लुगदी से बनी ये क्राकरी 10 से 15 दिन में खुद ही नष्ट हो जाएगी। जाहिर है कि इससे प्रदूषण नहीं होगा।