Home राजनीति मुसलमान भारतीय संविधान के तहत चलने में असहज सा महसूस करता है?

मुसलमान भारतीय संविधान के तहत चलने में असहज सा महसूस करता है?

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आबादी और गरीबी के क्षेत्र में हमने बेतहाशा वृद्धि की, यही हमारी आज़ादी के बाद सबसे बड़ी उपलब्धि है. जिस गति से आबादी बढ़ रही है, उसकी दूनी गति से गरीबी भी उसी आबादी में बढ़ रही है.

ज़माने के ज़िम्मेदार लोग आबादी को आतंक से और गरीबी को गिरजाघर से जोड़ कर अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गए.मुझे कहने में कोई संकोच नही है कि दोनों में से एक के लिए अगर हिंदुओ का अतिवाद है, तो दूसरी तरफ मुसलमानों में कट्टरवादिता. देश का दुर्भाग्य है कि हिन्दू, मुसलमान को भारतीय मानने से परहेज़ करता है. तो वहीं मुसलमानभी भारतीय संविधान के तहत चलने में असहज सा महसूस करता है. ये सत्ता के खेल का सबसे आसान तरीका सा होता जा रहा है. सत्ता ने सनातन को हिन्दू बना कर देश के मौलिक चरित्र को ही बदल दिया. विचार धारा की जगह वंश आ गया.जनतंत्र की जगह जातियां आ गयीं.

भारत अनेकता और एकता का देश है और जिस तरह उसे कुछ लोग बांट रहे हैं वो दुखद है

सरकार और संगठन दोनों कब्जे में रहें, यही उद्देश्य हो गया. नेचुरल नेतृत्व का आभाव हो गया. 73.6%आबादी गेहूं, जौ, बाजरा,मक्का, धान की बालियों के सहारे मुल्क को 139 करोड़ तकपहुंचाया.शीर्ष नेतृत्व में (सारे दलों में).6% भी लोग इस नेचर की विरासत में फर्क नही बता पायेंगे. पहचान नही बता पाएंगे.

मैं दावे के साथ कहता हूं कि 139 करोड़ लोगों के घर मे रोज़ दिया नही जलता.पर कल मौलाना साहब जो मुल्क को पैगाम दे रहे थे, उस पर मेरा घनघोर विरोध है. समस्याएं अंदर की है और आप बाहर से आये रोहंगिया को बसाने की बात कर रहे हैं,आखिर क्यों? अगर धर्म ही आधार है तो, सऊदी जाइये. दुबई जाइये.

मुसलमानों और हिंदुओं भारतीय बनो. संसद की जगह सड़क पर सवाल खड़ा करो. पर समता के लिए. सामाजिक सरोकार के लिए. संविधान की रक्षा के लिए. इंसानियत के लिए. बहु-बेटियों की आबरू के लिए. रोटी-रोज़गार के लिए. किसान-कामगार ही इस देश की सल्तनत का बादशाह बने.सनद रहे साथियों सड़क पर उठे सवाल को सरकार ने स्वीकार किया.

पहली बार सरकार ने स्वीकार किया कि पेट्रोल की कीमत घटनी चाहिए. इसमे सबसे बड़ी भूमिका उन लोगों की है, जो न पक्ष हैं, न विपक्ष हैं, बल्कि निष्पक्ष हैं.और यही सड़क से संसद की ताकत है.इसका हिस्सा बनिये, बन्दर आदमी से भी आगे जाना चाहता था, उस चाहत ने उसे हिमालय की कन्दराओं में पहुंचा दिया, जहां वो शांत हो गया.

जब वो वहां से बाहर निकला और चुप्पी तोड़ी तो इशारों के स्थान पर शब्द आ गए. भाषा संस्कृत हो गयी.जो कि उस भूभाग पर रहने वाले 90 फीसदी समझने में असमर्थ थे. शब्दो और श्लोकों के खेल ने उसे देव भाषा करार कर दिया, और सनातनी सभ्यता का भगवान सिर्फ संस्कृत समझने लगा.

वही दूसरी तरफ लोग दूसरे भगवान में आस्था रखते थे. जिन्हें शब्दों मे अल्लाह कहा गया. जो सिर्फ अरबी सुनते और समझते थे. उनमें आस्थारखने वालों बहुतायतों को भी अरबी और अल्लाह की भाषा नहीं समझते थे. शब्दो के संघर्ष के खेल में राजा और रंक की लड़ाई में समाज और सरकार का निर्माण हो गया.

सबने(सरकार) ने विश्वास दिलाया कि समाज के अंतिम आदमी का उदय ही लक्ष्य है. सनद रहे साथियों बात अंतिम आदमी की होती थी, पर भाषा विदेशी होती थी.

बीते दिनों की बात है. अंतिम आदमी के उदय के लिए चिदंबरम साहब अंग्रेजी में कर(टैक्स/वजट) लगाने की बात कह रहे थे. चलिए जनता ने उनका काम तमाम कर दिया. गांधी को गोड़से से ज्यादा कांग्रेसियों ने मार दिया.

शुक्र मनाइये विप्लवी बंगाल के बंगाली श्री सोभनाथ चटर्जी का जिसने कहा कि त्रिशूल और त्रिकुण्ड पर स्थापित काशी जो ब्रह्माण्ड को संचालित करती है. कहती है, सुनो और विश्वास करो. तर्क मत करो.उसी काशी में कबीर ने कहा सुना-सुनाई नहीं देखा-देखिन बात करो. उसी सारनाथ(काशी)से श्रीलंका के बीच बुद्ध ने कहा तर्क करो. अब तुम अपने सर्वप्रतिष्ठित, सर्वोच्च सदन में संस्कृत बोलने वालों को सुनो नहीं बल्कि देखो.

देखने में सोता नज़र आया और बोलने वालों के शब्द समझ में नहीं आया. परम्पराएं कितनी भी स्थिर हों पर प्रकृति बदलाव में विश्वास रखती है. उस विश्वास की कोख से अरुण जेटली जी का जन्म हुआ. उनका भी लक्ष्य अंतिम आदमी का उदय ही था. उनकी भाषा भी चिदंबरम साहब वाली ही थी.

अन्यथा झाड़ू और कफन पर कर(टैक्स) लगा रहे थे, सामने सदन,सरकार और बाहर दूरदर्शन पर समाज सब चुप-चाप सुन ही नहीं देख भी रहा था. पर कोई बोल नहीं रहा था. इससे साफ़ है कि तीनों समझने में असमर्थ हैं. अगर बजट हिंदी में पेश हो तो समाज सम्भवतः संसद को घेर लेता.