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इन पाँच कारणों से हिमाचल में नहीं बदला रिवाज, कांग्रेस को मिला राज

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हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी शानदार ढंग से वापसी करते हुए लगभग 40 सीटें जीतती दिख रही है.

वहीं, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के खाते में अब तक सिर्फ 25 सीटें आती दिख रही हैं.

ये तब हो रहा है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने हिमाचल प्रदेश में लगातार कई रैलियां कीं. बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा खुद हिमाचल प्रदेश से आते हैं.

बीजेपी ने अपने चुनाव अभियान में नारा दिया था, ‘सरकार नहीं रिवाज़ बदलेंगे’ लेकिन चुनाव के नतीजे रिवाज़ नहीं सरकार बदलते दिख रहे हैं.

अब सवाल है कि कांग्रेस हिमाचल प्रदेश में वापसी करने में कैसे सफल रही और वो कौन सी वजहें रहीं जिनका बीजेपी को नुकसान और कांग्रेस को फायदा हुआ.

1. पुरानी पेंशन स्कीम लागू करने का वादा

कांग्रेस पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में कहा था कि वो राज्य में पुरानी पेंशन स्कीम को शुरू करेगी. ये एक ऐसा मुद्दा है जो हिमाचल प्रदेश की ग्रामीण और शहरी आबादी दोनों के लिए काफ़ी अहम है.

क्योंकि हिमाचल प्रदेश में लगभग ढाई लाख सरकारी कर्मचारी हैं जिनमें से डेढ़ लाख कर्मचारियों पर नयी पेंशन स्कीम लागू होती है.

हालांकि, बीजेपी इस मसले पर स्पष्ट रूप से किसी तरह की पेशकश करती नहीं दिखी. लेकिन अब सवाल है कि कांग्रेस अपने इस चुनावी वादे को कैसे पूरा करेगी?

इंडियन एक्सप्रेस की एक ख़बर के मुताबिक़, पिछले पांच सालों में हिमाचल प्रदेश सरकार का ख़र्च 17 हज़ार करोड़ से बढ़कर 22 हज़ार करोड़ के पार चला गया है.

हिमाचल प्रदेश की वित्तीय स्थिति की ऑडिट रिपोर्ट के मुताबिक़, साल 2020-21 में सरकार का ब्याज़, वेतन, मजदूरी और पेंशन आदि पर खर्च 22,464.51 करोड़ रहा जो 2016-17 में 17,164.75 करोड़ रुपये था.

ये ख़र्च सरकार को होने वाली कमाई का 67.19 फीसद है जो पांच साल पहले तक 65.31 फीसद था. अगर कांग्रेस पेंशन स्कीम का चुनावी वादा पूरा करती है तो सरकार पर पड़ने वाला आर्थिक दबाव बढ़ जाएगा. यही नहीं, विकास से जुड़ी योजनाओं के लिए भी राज्य सरकार को ख़र्च करना होगा.

ऐसे में देखना ये होगा कि राज्य सरकार विकास से जुड़ी योजनाओं को तरजीह देगी या पुरानी पेंशन स्कीम को.

हिमाचल में ग्राम परिवेश के संपादक महेंद्र प्रताप सिंह राणा बताते हैं, “हिमाचल प्रदेश में, कांग्रेस की जीत में ओल्ड पेंशन स्कीम लागू करने के वादे ने मौखिक चुनावी अभियान का काम किया. क्योंकि कांग्रेस ने सत्ता में आते ही ये स्कीम बहाल करने का वादा किया है. इसके अलावा हिमाचल में कांग्रेस के पूरे कैंपेन में कोई बड़ा चेहरा नहीं था. तो ऐसे में ओपीएस का मुद्दा कमजोर नहीं पड़ा जिसने ज़मीन पर कांग्रेस के स्थानीय नेताओं की खूब मदद की.”

2. अग्निवीर स्कीम पर गुस्सा

इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी को केंद्र सरकार की अग्निवीर स्कीम से भी मदद मिलती दिखी. हिमाचल प्रदेश में हर साल हज़ारों युवा भारतीय सेना की भर्ती होने का प्रयास करते हैं.

लेकिन केंद्र सरकार की अग्निवीर स्कीम ने इस समीकरण को एकाएक बदल दिया है.

चुनाव से ठीक पहले बीजेपी में शामिल होने वाले मेजर विजय मनकोटिया ने भी इस स्कीम को लेकर अपनी चिंता ज़ाहिर की थी.

यूपी से लेकर बिहार समेत कई अन्य राज्यों में इस स्कीम को लेकर खुलकर विरोध प्रदर्शन और आगजनी देखी गयी. हिमाचल प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में भी इसे लेकर स्पष्ट रूप से नाराज़गी का भाव था.

हिमाचल प्रदेश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सेना की नौकरियां एक अहम भूमिका निभाती है. इसके अलावा महंगाई और बेरोजगारी को लेकर भी लोगों में काफ़ी रोष था.

महेंद्र प्रताप सिंह राणा कहते हैं, ‘काँगड़ा, हमीरपुर, ऊना और मंडी में अग्निवीर भी बड़ा मुद्दा था. क्योंकि यहाँ से फ़ौज में काफ़ी परिवार है.’

राजनीतिक चुनाव विश्लेषक के एस तोमर भी मानते हैं कि कांगड़ा में बीजेपी को बहुत नुकसान हुआ.

वे कहते हैं, “कांग्रेस को हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा में सबसे ज़्यादा फायदा मिला. वहां सबसे ज़्यादा विधानसभा सीटें हैं और वहां से होकर ही हिमाचल प्रदेश की सत्ता का रास्ता जाता है.”

3. सुनियोजित चुनाव अभियान

इस चुनाव में कांग्रेस ने स्थानीय मुद्दों पर ध्यान दिया जबकि बीजेपी गुजरात या दूसरे तमाम चुनावों की तरह नरेंद्र मोदी की ‘लार्जर देन लाइफ़’ इमेज़ के भरोसे चुनाव लड़ती दिखाई दी.

इस चुनाव में बीजेपी सत्ता विरोधी लहर का सामना भी कर रही थी. हिमाचल प्रदेश के हालिया इतिहास पर नज़र डालें तो यहां की जनता हर पांच साल में सरकार बदलती आई है.

बीजेपी ने इसे ध्यान में रखते हुए अपने चुनाव अभियान में ‘सरकार नहीं, रिवाज़ बदलेंगे’ का नारा दिया था. लेकिन इसके बाद भी बीजेपी को मोदी, अमित शाह, और जेपी नड्डा के तमाम दौरों का फायदा नहीं मिला.

केएस तोमर कहते हैं, “इस चुनाव में कांग्रेस की जीत के लिए उसके चुनाव लड़ने के ढंग की तारीफ़ करनी पड़ेगी. कांग्रेस ने इस बार वीरभद्र सिंह की विरासत पर चुनाव लड़ा. मतदाताओं से एक भावनात्मक संबंध बनाने की कोशिश की. उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह को कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष बनाया और एक तरह से वीरभद्र सिंह के लिए श्रद्धांजलि के रूप में वोट मांगे गए. यही नहीं, कांग्रेस नेताओं ने स्थानीय नेताओं को जगह दी और दिल्ली के चेहरों पर चुनाव लड़ने का फ़ैसला नहीं किया.”

4. धूमल ख़ेमे की उदासीनताहिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल

हिमाचल प्रदेश में बीजेपी को धूमल खेमे की उदासीनता का भी नुकसान उठाना पड़ा. प्रेम कुमार धूमल अब तक दो बार प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं.

लेकिन इस बार उन्होंने चुनाव नहीं लड़ने का फ़ैसला किया. उनसे कई पत्रकारों ने पूछा कि क्या वो नाराज़ हैं? इसके जवाब में उन्होंने कहा है कि वह ‘पार्टी के एक समर्पित कार्यकर्ता हैं.’

साल 2017 में चुनाव हारने के बाद जयराम ठाकुर को उनकी जगह मुख्यमंत्री पद की ज़िम्मेदारी दी गयी. उनके बेटे अनुराग ठाकुर को केंद्र सरकार और छोटे बेटे अरुण धूमल को बीसीसीआई में अहम ज़िम्मेदारी मिली.

हालांकि, इसके बाद भी हिमाचल प्रदेश की बीजेपी में जयराम ठाकुर और धूमल खेमे में सब कुछ ठीक नहीं हुआ.

केएस तोमर बताते हैं, “प्रेम कुमार धूमल की हिमाचल की राजनीति में अभी भी एक ख़ास जगह बनी हुई है. उनके बेटे अनुराग ठाकुर केंद्र में एक अहम ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं. इसके बाद भी जयराम ठाकुर की ओर से धूमल को ख़ास तवज्जो नहीं दी गयी और धूमल खेमा लगातार ये कहता भी रहा.”

“हिमाचल में जीते विधायकों में से 20-22 नेता उनके समर्थकों में माने जाते हैं. इसके साथ ही धूमल साहब को चुनाव प्रचार में सक्रिय भूमिका नहीं दी गयी. इसके साथ ही धूमल खेमे के कुछ समर्थकों के टिकट भी काटे गए.”

5. बीजेपी के बाग़ी विधायक

बीजेपी को इस चुनाव में जिस समस्या का सबसे ज़्यादा सामना करना पड़ा वो शायद पार्टी के अंदर अंतर्कलह थी.

तोमर कहते हैं, “इस चुनाव में बीजेपी को आपसी झगड़ों का बहुत नुकसान हुआ. कम से कम दस विधायकों के टिकट काटे गए, उनमें से ज़्यादातर बाग़ी हो गए और कुल बाग़ियों की संख्या 19 से 21 के बीच रही है. जबकि कांग्रेस के बाग़ियों की संख्या 10-12 के आसपास रही है.”

“लेकिन बीजेपी के बाग़ियों में से कई नेताओं में जीतने का दम भी था. ऐसे में बीजेपी का काडर बंटा हुआ था जिसकी बीजेपी को भारी कीमत चुकानी पड़ी.”