Home छत्तीसगढ़ अनर्थों की जड़ : राग

अनर्थों की जड़ : राग

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रायपुर – दिगम्बराचार्य श्री गुरु विशुद्धसागर जी ने धर्म सभा में सम्बोधन करते हुए कहा कि जो हमारे राग की पुष्टि करता है, वह हमें अच्छा लगता है और जिससे हमारे राग की पुष्टि नहीं होती है, यह प्रिय नहीं लगते हैं। वस्तु तो जैसी है वैसी ही है। न वह सुन्दर है, न वह असुन्दर है। जो हमें प्रिय लगता है उसके दोष भी दृष्टिगोचर नहीं होते हैं और जो अप्रिय लगता है उसके गुण रूप दिखाई नहीं देते हैं। गुण भी सम्राट वही श्रेष्ठ है, जो पक्षपात से शून्य हो । अयोग्य, अनुशासनहीन, सरलता-विहीन क्रूर, क्रोधी, अकुशल व्यक्ति का शासन नहीं चल पाता है। पद के योग्य, अनुशासनप्रिय, कुशल, दूरदृष्टा, अनुभवी, बलवान, नीतिज्ञ मनुष्य की श्रेष्ठ राज्य का अधिकारी होता है। सरलता मानव जीवन का आभूषण है । क्षमा आनन्द की जननी है। विनय सुख का आधार है। सुख का द्वार है। धर्म परम सुख का द्वार है राग आग है, वीतराग भाव शीतल नीर है। राग की एक कणिका जीवन को अशांत कर देती है । दुनिया में जितने भी अनर्थ हुए हैं, हो रहे हैं और भविष्य में होंगे, वह सभी रागियों के कारण ही होंगे। राग के वशीभूत मानव अनर्थ- पर- अनर्थ करता है। अनर्थों की मूल जड़ राग है। राग के वश मानव संचित पुण्य को नष्टकर पाप ‘प्रवृत्त होकर संसार में भ्रमण करता है। राग दुःख का कारण है। राग अंधा होता है। रागी हिताहित का विचार नहीं कर पाता है। रागातीत मानव ही धर्म-मार्ग पर चल सकता है। राग छोड़ो, वैराग्य पथ पर बड़ो । वीतराग भाव ही कल्याणकारी है ।