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अपने अस्तित्व को जिंदा रखना है तो पुण्य कर्म जरूरी- आचार्य श्री वर्धमान सागर जी

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उदयपुर – हुमड भवन में विराजित वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज ने प्रात कालीन धर्म सभा में उपस्थित श्रावकों से विभिन्न विषयों के बारे में चर्चा करते हुए कहां की मुस्कुराने पर मुंह से आवाज नहीं होती। लेकिन चेहरे पर मुस्कुराहट के साथ आवाज निकल जाती है तो वह हास्य बन जाता है। और हास्य को कर्म प्रधान माना गया है। किसी को भी गलत बोलना गलत राय देना या गलत बात बताना स्वयं के लिए तो पीड़ादायक और अपमानजनक होता ही है लेकिन इससे आपके धर्म को भी ठेस पहुंचती है। यह मानव धर्म नहीं है कि किसी को गलत बोला जाए या गलत रास्ता दिखाया जाए। अगर अपने अस्तित्व को हमेशा के लिए जिंदा रखना है तो उसे पुण्य कर्म के माध्यम से ही रखा जा सकता है। हमेशा हमें अपने जीवन में अपने कर्तव्यों का भली-भांति निर्वाह करना चाहिए । आचार्यश्री ने कहा कि आपकी आत्मा कैसी है उसके बारे में कोई और नहीं जान सकता क्योंकि आपकी आत्मा के बारे में आपको ही जानना होगा। जितने भी परिग्रह है उसके प्रति आप  आसक्त हैं, उन्हीं के भोग उपयोग में रहते हैं, आप उनमें से किसी का भी त्याग नहीं कर सकते हैं। तो आपको ही सोचना और तय करना पड़ेगा यह आप की आत्मा कैसी है। इसका उत्तर कोई और नहीं दे सकता।

आचार्य श्री ने मृत्यु को निकटता से जान पाने के प्रश्न के उत्तर में कहा कि मृत्यु को निकट से जानना यूं तो बहुत ही कठिन है। लेकिन शास्त्रों के अनुसार बात की जाए तो जिसे सूर्य और चंद्रमा दिखाई ना दे, जिसे लाल फूल भी सफेद रंग का दिखाई दे, जिस की जिव्हा से जल गिरता नहीं दिखाई दे, जिसकी जिह्वा पर कोई स्वाद महसूस ना हो, जिसे अपने शरीर पर किसी भी स्पर्श का अनुभव ना हो, जिसे चारों दिशाएं भी हरित वर्णित लगती हो यानी हरी-भरी दिखाई देती हो। अगर इस तरह की क्रियाएं जिस शरीर और आंखों में होने लगे तो समझ लेना कि वह मृत्यु की निकटता को प्राप्त करने वाला है । गुरुवार की धर्म सभा में शांतिलाल वेलावत, सुरेश पद्मावत, उपमहापौर पारस सिंघवी, सुमति लाल राठिया,  रविंद्र सांगानेरिया, चंद्रप्रकाश कारवां, जय कारवां, श्रीपाल धर्मावत एवं पारस चित्तौड़ा मुख्य रूप से उपस्थित थे जिन्होंने विवेक मांगलिक एवं धार्मिक आयोजनों में सहयोग किया।