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प्रकृति का धर्म है त्याग करना – आचार्य श्री 108 सुबल सागर जी महाराज

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चंडीगढ़ – पर्यूषण पर्वराज का आज उत्तम त्याग का दिन है। त्याग का अर्थ है छोड़ना। प्रकृति भी परिवर्तन रूप त्याग को अपनाती है क्योंकी जब पतझड़ आयेगा तो समस्त पेड़ के पत्ते झड़ जाते है और तभी नए पत्ते आऐगो। इसी प्रकार पेड़ पर फल आऐ और पेड़ अगर उन फलों को त्याग नहीं करेगा तो वह अपने आप ही सड़ जायेगा नष्ट हो जायेगा । हम सभी लोग रोज आहार (भोजन)  करते हैं और विहार (फ्रेश) भी होते है अगर विहार नहीं करेंगे तो हम भी बीमार पड़ जाएंगे। इसी प्रकार हमारी आत्मा में लगे हुए दोषों को हम नहीं छोड़ेगे तो हमारा भी  पतन अर्थात् दुर्गति में जाना निश्चित है । चंडीगढ़ दिगम्बर जैन मंदिर सेक्टर-27बी में पर्यूषण महापर्व का महोत्सव भक्त लोगों में भक्ति की धारा निरंतर बढ़ती जा रही हैं आचार्य श्री सुबल सागर जी महाराज ने धर्म सभा को संबोधित करते हुआ कहा कि अपन लोगों को देना सीखना चाहिए क्योंकि देने वाला व्यक्ति महान होता है  देने वाले हमेशा ऊँचाई की ओर जाता है। जो देता है  उसको ही सब कुछ प्राप्त होता है अपनी वस्तु का त्याग करते हुए किसी को देने से ही अपने को वा दूसरे को सम्मान, खुशी हर्ष सब कुछ प्राप्त होता है। त्याग ही जीवन को पावन, पवित्र वा सफल बनाता है त्याग से ही उत्थान होता है। यह धर्म हमे छोड़ना सिखाता है जोड़ना नहीं। जोड़ने से दुःख और अशांति मिलती है । अपनी आय का आधा परिवार के लिए, एक चौथाई जमा पूँजी में और एक चौथाई का दान उत्तम त्याग है । त्याग करने से पाप का मूलधन समाप्त होता है, दान से पाप का ब्याज चुकता है। त्याग से आत्मा का पोषण होता है। जो त्याग करेगा, वही सम्मान पायेगा, संग्रह जो करेगा, वो पतन को पायेगा । वस्तु का त्याग करने से पहले अहंकार का त्याग सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। वस्तु के होने पर भी, उस वस्तु व्यवस्था का त्याग करना ही त्याग धर्म है। त्याग में ही संतोष और शांति का भाव है । श्री धर्म बहादुर जैन ने बताया की महाराज श्री ने आगे कहा कि प्रकृति ने प्रकृति ने दो मार्ग दिये हैं-एक-देकर जाओ या दूसरा-छोड़कर जाओ। क्या करके जाना है-आप कुछ भी जोड़ लो, देखना ! एक दिन छोड़कर चले जाओगे। इसलिए मेरी एक बात हमेशा याद रखना आप भारत की भूमि पर मेहमान है मालिक नहीं, एक ना एक दिन इसे छोड़कर सभी को जाना है। धन दौलत – पूँजी  की तीन की गति होती है दान- भोग- विनाश। अर्थात् आप चाहे तो अपनी इच्छाओं की पूर्ति में लगाकर इनका भोग कर लो, या कुछ इच्छाओं को रोककर जो बचे उसका दान कर दो अगर ऐसा भी नहीं कर पाऐ तो निश्चित ही वह विनाश को प्राप्त होगी।दान के भी चार भेद बताएं है आहार दान, औषधिदान, शास्त्र दान और अभयदान आगम ग्रंथों में इसके अलावा और कोई भी प्रकार का दान नहीं कहाँ गया है यह भी सुपात्रों को देना इनको देने पर ही सुफल की प्राप्ति होती है।