देश भर के परंपराओं को देखें तो होली वर्षारंभ की उत्सवी दस्तक है. पुरानी वस्तुओं के ढेर को जलाने की जो कथा है, उससे अलग इसकी परंपरा अत्यंत गहरी है और गेहूं की बालियों को उसकी आग में भून कर लाना-उसका स्वाद चखना भी उसी का हिस्सा है.
इन तमाम परंपराओं से अलग बिहार की होली राष्ट्रीय परंपराओं का एक मिश्रित और सम्मिलित रूप है जो यहां के गायन से लेकर उत्सवी रंग ढंग में दिखता है. मिथकीय कथाओं के अनुसार पिता हिरण्य कश्यप और उनके बेटे भक्त प्रह्लाद के बीच युद्ध की चरम स्थिति, होलिका द्वारा प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रविष्ट होना और प्रह्लाद का वहां से बच निकलने की खुशी का ही प्रतीक होली है. इसी कहानी में आगे भगवान श्रीकृष्ण आते हैं और होली का गायन उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमता है.
ब्रजभाषा का गायन व मगध क्षेत्र का धमाल
बिहार में जिन शैलियों में होली का गायन है उसमें ब्रजभाषा का गायन और मगध क्षेत्र का धमाल है. गायन होली में दल सवाल और उत्तर गाते हैं. सवाल और उलाहने गोपियों के होते हैं और उत्तर गोपाल के होते हैं. इस परंपरा में वाद्य गायन का साथ देता है और गीत की प्रधानता तो होती ही है, राग अपनी लय से आगे बढ़ता चलता है. अंत में राग अपनी लय के साथ ही विराम तक पहुंचता है. धमाल में गायन तुरंत ही चरम पर पहुंचता है और अंत में अचानक ही उसकी परिणति आती है. होली की इस गायन शैली में राग शिखर पर ही बना रहता है. गायन की परंपरा मिथिला के क्षेत्र में है तो धमाल मगध क्षेत्र की. भोजपुरी में दोनों का मिश्रित रूप है लेकिन उसपर धमाल हावी है.
पटोरी में आज भी ‘छाता होली’ का प्रचलन
बिहार के समस्तीपुर जिले के भिरहा और पटोरी गांव में परंपरागत रूप से होली की खासियत बरकरार है. भिरहा में झरीलाल पोखर में गांव के विभिन्न टोलों के लोग पहुंच जाते हैं. वे सभी लोग पोखर में ही विभिन्न रंगों को घोल कर एक साथ स्नान करते हैं. ढोल, मंजीरे के साथ जुलूस की शक्ल में होलिका दहन करने सारे ग्रामीण उसी तालाब के पास आते हैं. पटोरी में आज भी ‘छाता होली’ का प्रचलन है. पटोरी तथा इसके आसपास के क्षेत्र के लोग यहां होली के दिन इकट्ठा होते हैं, सभी के हाथों में छाता होता है. इस दौरान लोग एक-दूसरे को रंगने की कोशिश करते हैं जबकि लोग रंग से बचने के लिए छाते का इस्तेमाल करते हैं, इस दौरान होली के गीत गाये जाते हैं.