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मन, वचन, काय को संभालना ही सबसे बड़ी कला – भावलिंगी संत आचार्य श्री विमर्शसागर जी महामुनिराज 

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जतारा – भगवान महावीर ने प्राणी मात्र को पापों से निवृत्ति का मार्ग बतलाया और पुण्यार्जन करने का शुभ मार्ग बतलाया। संसार में जो भी प्राणी जैसे-जैसे कर्म करता है वे कर्म उस प्राणी को प्रतिध्वनि की भाँति उसे ही भोगने पड़ते हैं। आज व्यक्ति अपने जीवन में रोगों का बीमारियों का उपशमन अर्थात उनका इलाज चाहता है लेकिन क्या कभी आपने विचार किया है कि मैं भी कभी किसी रोगी प्राणी की सेवा कर दूँ, सत्पात्रों को औषधिदान कर लूँ, किसी दुःखी प्राणी के स्वास्थ्य लाभ की शुभ भावना कर लूँ । यदि आपने कभी किसी के प्रति स्वास्थ्य की शुभ भावना नहीं की है तो आपके द्वारा अपने स्वास्थ्य के लिए किया जाने वाला पुरुषार्थ भी व्यर्थ चला जाता है। यह पावन सदुपदेश जतारा, नगर गौरव आचार्य श्री विमर्शसागर जी महामुनिराज ने सभा को सम्बोधित करते हुए दिया।

  आचार्य श्री ने आगे बताया – मन, वचन, कार्य रूप तीन योगों को संभालने की कला यदि आपको आ जाए तो आपकी श्रद्धा, विश्वास, सम्यग्दर्शन अमर हो जाएगा किन्तु यदि आपका मन उद्दण्ड है, वचनों का संयम नहीं है, काय की चेष्टायें अशुभ हैं तो आपका सम्यग्दर्शन कभी स्थिर नहीं रह सकता । बन्धुओ ! आपका गृहस्थ जीवन है आपको अपने जीवनोपयोगी क्रियायें करनी ही होंगी लेकिन यदि आपके द्वारा की जाने वाली क्रियायें विवेक सहित हो तो आपकी वे ही क्रियायें पाप बंध की अपेक्षा पुण्य बंध में विशेष कारण बन आएंगी। कोई व्यक्ति जब गृहस्थ जीवन से श्रावक धर्म में प्रवेश करता है तो वह स्वयमेव ही श्रद्धावान, विवेकवान और क्रियावान हो जाता है। ऐसा विवेकी श्रावक अपना हर कदम संभाल-संभाल कर रखता है, वह पापक्रिया से भयभीत रहता है और धर्म के कार्यों में उत्साह उल्लास पूर्वक भाग लेता है। बंधुओं ! सच्चा श्रावक वहीं है जो ज्ञान और वैराग्य भावना से भरा हुआ हो सदा निर्ग्रन्थ वीतरागी संत बनने की भावना रखता हो। और सतत् अपने आवश्यक कर्तव्यों में लीन रहता हो। ऐसे सच्चे श्रावक एवं निर्ग्रन्थ वीतरागी दिगम्बर संत ही धर्म के रथ को आगे बढ़ाने का कार्य करते हैं।