Home समाचार क्यों एक शिकारी के नाम पर रखा गया नेशनल पार्क का नाम..

क्यों एक शिकारी के नाम पर रखा गया नेशनल पार्क का नाम..

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भारत में अगर किसी मशहूर शिकारी का नाम पूछा जाए, तो ज़्यादातर लोगों की ज़ुबान पर जिम कॉर्बेट (Jim Corbett) का नाम ही आएगा. संभव है कि कॉर्बेट के अलावा किसी और शिकारी का नाम या उसकी कहानी भी कई लोगों को न पता हो. जिम कॉर्बेट सिर्फ शिकारी ही नहीं, बल्कि दूसरे कामों के लिए भी मशहूर रहे हैं. इसी वजह से देश के पहले नेशनल पार्क की स्थापना 8 अगस्त 1936 को हेली नेशनल पार्क के तौर पर की गई थी लेकिन 1952 में कॉर्बेट के प्रति सम्मान ज़ाहिर करते हुए इस पार्क का नाम उनके नाम पर (Jim Corbett National Park) रखा गया. आइए जानते हैं कि कॉर्बेट ने ऐसे क्या कारनामे किए थे, कि नेशनल पार्क का नाम बदला गया.

जिम कॉर्बेट शिकारी होने के साथ ही एक बेहतरीन लेखक (Famour Writer) थे. उन्होंने अपनी शिकार कथाओं के साथ ही जंगल की समझ देतीं मशहूर किताबें लिखीं. शिकार के दौरान कॉर्बेट ऐसे पेड़ के नीचे सोते थे, जिस पर लंगूर हों क्योंकि उन्हें पता था कि आदमखोर बाघ (Man-Eater Tiger) अगर आया तो लंगूर चुप नहीं रहेंगे… या कभी भैंसों के बाड़े में जाकर रात में झपकियां लेते थे क्योंकि आदमखोर की आहट दूर से ही भांपकर भैंसों में भी हलचल होती थी… इसी तरह के कई बेजोड़ अनुभव बांटने वाले कॉर्बेट के कुछ चुनिंदा, दिलचस्प और खास प्रसंग जानें.

कॉर्बेट की पहचान शिकारी की थी लेकिन… साल 1906 की बात है, जब कॉर्बेट की विलक्षण शिकार प्रतिभा के चर्चे दूर दूर तक हो रहे थे, तब उनके एक शिकारी दोस्त ने उन्हें एक शिकार के लिए प्रेरित किया क्योंकि यह शिकार लोगों के भले के लिए किया जाना था. चंपावत टाइगर नेपाल की सीमा में 200 लोगों की मौत का कारण बन चुका था और जब इसे खदेड़ दिया गया, तो भारत में इस आदमखोर शेरनी ने 234 जानें ली थीं. इस आदमखोर शेरनी का शिकार करने में आर्मी सहित कई शिकारी नाकाम रह चुके थे.

कई चर्चाओं के बाद कॉर्बेट ने मंत्रालय से संपर्क किया और बंगाल टाइगर प्र​जाति की चंपावत आदमखोर शेरनी के शिकार के लिए शर्तें रखीं. पहली कि उस शेरनी के शिकार पर रखा गया इनाम हटाया जाए. दूसरी सारे शिकारियों को जंगल से वापस बुलाया जाए. मंत्रालय राज़ी हुआ. कुछ महीनों का समय लगा कॉर्बेट को उस शेरनी की निगरानी में और तब तक वह शेरनी और लोगों को शिकार बनाती रही. फिर कॉर्बेट ने एक गोली मारकर उस शेरनी का शिकार कर लोगों में फैला आतंक दूर किया.

जिम कॉर्बेट के शिकार के कई किस्से किंवदंती बन चुके हैं. पवलगढ़ टाइगर की बात हो या चौगरथ शेरनी की, कई आदमखोर बाघ-बाघिनों के शिकार का श्रेय कॉर्बेट के खाते में रहा और शिकारी के रूप में उनकी कीर्ति की वजह बना. कुछ किताबों में इस तरह के ज़िक्र मिलते हैं कि कॉर्बेट एक या दो सहयोगियों और एक बंदूक के साथ जंगल में घुस जाते थे और आदमखोर के शिकार के लिए लंबा इंतज़ार करते थे. कई सहयोगी और स्थानीय लोग उनके इस जोखिम के कायल हुए बगैर नहीं रह पाते थे. ये भी दिलचस्प है कि कॉर्बेट अक्सर लोगों को बचाने के लिए शिकार करते थे और कोई रकम नहीं लेते थे. उन्हें सड़क से संसद तक धन्यवाद दिया जाता था.

शिकारी होने के साथ ही कॉर्बेट ने बाघों पर उस समय जो अध्ययन किया था, वह भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के लिए भी बहुत नया था. मसलन, चंपावत टाइगर के शिकार के बाद कॉर्बेट ने मुआयना कर यह जानना चा​हा कि वो शेरनी आदमखोर क्यों हो गई थी. तब उन्होंने पाया कि कुछ साल पहले किसी ने उसके मुंह में गोली मारी थी, जिसकी वजह से उसके दांत विक्षत हो चुके थे इसलिए वह जंगल में सामान्य रूप से जीवों का शिकार नहीं कर पा रही थी.

बाघों के बर्ताव, उनके संरक्षण और प्रकृति यानी जंगल के बाकी जीव जंतुओं को लेकर उनके अध्ययन ने कई परतें खोलीं और यह जागरूकता भी फैलाई कि किस तरह वन्यजीवों का संरक्षण किया जाना चाहिए और यह क्यों ज़रूरी है. जब नैनीताल की सीमा में तत्कालीन व्यवस्था ने भारत के पहले नेशनल पार्क यानी हेली नेशनल पार्क की स्थापना की, तब उसके पीछे कॉर्बेट का बड़ा सहयोग और नज़रिया था. कॉर्बेट के इस कदम से उनके कई शिकारी दोस्त नाराज़ भी हुए थे क्योंकि उन्होंने शौकिया शिकार को एक तरह से प्रतिबंधित करने का काम करवाया था.

कॉर्बेट के और कारनामे भी जानें
भारत के नैनीताल में 1875 में जन्मे कॉर्बेट ने ब्रिटिश राज में बतौर शिकारी और प्रकृति संरक्षक के अलावा रेलवे और सेना में भी सेवाएं दी थीं. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान कॉर्बेट सैनिकों को जंगलों में लंबे समय तक जीवित रहने के तरीके सिखाते थे. उन्हें लेफ्टिनेंट कर्नल की रैंक तक दी गई थी. फिर केन्या जाकर भी उन्होंने प्रकृति संरक्षण के लिए बेजोड़ काम किया था और उस दौरान छह और किताबें लिखी थीं. किताबें लिखकर कॉर्बेट ने एक तो भारत के जंगलों को प्रसिद्धि दिलाई और दूसरे शिकार के प्रति दुनिया का नज़रिया बदला कि शिकार शौक नहीं बल्कि शांति के लिए किया जाता है.

– नैनीताल के पास छोटी हल्दवानी गांव को एक तरह से गोद लेकर कॉर्बेट ने वहां के लोगों की रक्षा की थी. उनकी याद में वहां एक स्मारक भी है.
– अपने जंगल के अनुभवों से वह प्राकृतिक चिकित्सा भी करते थे और कई लोगों का इलाज कर उन्हें इलाज के बारे में सबक भी देते थे.
– किसी आदमखोर जीव के आतंक से परेशान कई राज्य कॉर्बेट को शिकार के लिए खास तौर से बुलाया करते थे.
– वन्यजीवों के अधिकार के लिए कॉर्बेट ने भरपूर वकालत की थी और इस क्षेत्र में उन्हें पुरोधा माना जाता था.
– आज भी उत्तराखंड के जंगलों से सटे कई इलाकों में आप कॉर्बेट से जुड़े किस्से सुनकर अंदाज़ा लगा सकते हैं कि उनके लिए कितना सम्मान रहा. छोटी हल्दवानी को अब कॉर्बेट विलेज के नाम से भी जाना जाता है.

आखिरकार… कॉर्बेट क्यों कहलाए कारपेट साहिब?
ब्रितानी कवि और लेखक मार्टिन बूथ ने जब जिम कॉर्बेट की जीवनी लिखी तो उसका शीर्षक रखा ‘कारपेट साहिब’. इसकी वजह यही थी कि वह स्थानीय लोगों के बीच इसी नाम से मशहूर रहे थे. अस्ल में, पहाड़ी लोग उनका नाम ठीक से नहीं बोल पाते थे इसलिए 20वीं सदी की शुरूआत में शेर सिंह नेगी जैसे उनके शिकार सहयोगियों ने उन्हें कारपेट साहिब कहना शुरू किया था और धीरे धीरे इसी नाम से वह लोकप्रिय हो गए थे. दिलचस्प है कि केन्या जाने से पहले कॉर्बेट जो बंदूक शेर सिंह को दे गए थे, वह अब भी शेर सिंह के खानदान के पास सुरक्षित है. कॉर्बेट की अमिट याद के तौर पर.