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अज्ञानी कौन ? – जो दुःखों को अनुभव करके भी उन्हें भूल जाता है –      भावलिंगी संत राष्ट्रयोगी आचार्य श्री विमर्शसागर जी महामुनिराज

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जतारा – एक जगह संत जी आए हुए थे, अनेको भक्त उनके समीप पहुंचे, संत जी ने उपदेश दिया एक भक्त खडा होकर पूछने लगा अज्ञानी कौन है? संत जी ने कहा -जो दुःखों को अनुभव करके भी उन्हें भूल जाता है वह अज्ञानी है।” एक बाल शिशू अपनी माँ के पास बैंठा है और पास ही में रखे हुए प्रज्वलित दीपक की और बार – बार जाता है और इसकी ज्योति को पकड़ने का प्रयास करता किन्तु माँ उसे बार-बार वहाँ से हटा लेती, कुछ समय बाद माँ अपने गृह कार्यों में लग जाती है तो वह शिशु अपनी माँ से नजर बचाकर दीपक की ओर जाता है और जलती हुई उस दीपशिखा को पकड़ लेता है। दीपक की लौ तो बुझ जाती है किन्तु बालक का हाथ जल गया और वह जोर से चीखा, माँ दौड़कर आई और बालक को गोद में उठा लिया, बालक रो-रोकर अपना जला हुआ हाथ माँ को दिखाता है। माँ एक ओर सहानुभूति दिखाती है वहीं दूसरी ओर दीपक को पास लाकर बालक से कहती है “ले और पकड़, मना किया था न तुझसे” किन्तु अब बालक अपने हाथों को पीछे खींचता है कहता है- नहीं, नहीं अब मैं नहीं पकहूंगा। ऐसा बालक क्यों कर रहा है ? क्योंकि अब उसे अनुभव प्राप्त हो गया है कि इसे पकड़ने से दुःख होता है। क्या कभी आप उस बालक की तरह भी बन पाए हैं? यह जीव अनादि काल से चार गतियों की 84 लाख योनियों में परिभ्रमण करता चला आ रहा है, नरक गति में अनंत काल तक निरंतर मार-पीट, छेदन-भेदन के अनेकों घोर दुःख पाए है फिर भी बहुत परिग्रह आसक्ति में पड़कर पुन: वहीं जाने की तैयारी कर रहा है यही सबसे बड़ा अज्ञान है। प्रत्यक्ष में ही तिर्यंच गति के जीवों के दुःख स्वयं इन आँखो से देखकर भी तिर्यंच गति में जाने के उपाय छल-कपट मायाचारी, झूठ बोलना, दूसरों को ठगना आदि कार्यों को नहीं छोड़ता यही सबसे बड़ा अज्ञान भाव है। जो व्यक्ति अपने अनुभव में आए दुःखों को भी दुःख नहीं मानता वह व्यक्ति सबसे बड़ा अज्ञानी है जिस व्यक्ति को चार गतियों के दुःखों का स्वरूप अनुभव में नहीं है वह सच्चा धार्मिक नहीं हो सकता । जो अनुभव किए हुए दुःखों को पुन: प्राप्त करना नहीं चाहता वही सच्चा ज्ञानी है। प्रत्येक जीव का जन्म उसे भावों से होता है जो व्यक्ति जिस गति के योग्य परिणाम (भाव) करता है वह उसी गति को प्राप्त करता है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, लोभासक्ति, क्रोध, बैर, अभिमान, मायाचारी, असंतोष, विषय-वासना, आदि खोटे परिणाम व्यक्ति को नरक और तिर्यंच इन खोटी गतियों में ले जाते है। क्षमा, विनय, सरलता, संतोष, सत्य, अहिंसा, संयम, तप, त्याग, ब्रहाचार्य, निर्लोभता, दया, करुणा, प्रेम वात्सल्य भाव, धर्म और धर्मात्माओं में प्रीतिभाव आदि शुभ परिणाम व्यक्ति को दुर्गात से छुड़ाकर सुगति में पहुँचा देते हैं और एक दिन चारों ही गतियों से छुड़ाकर परम सुख स्वरूप मोक्ष में पहुंचा देते हैं। इन 4 गतियों के दुःखों को अपना अनुभव बनाकर दुःखों को दूर करने का उपक्रम करना चाहिए। अत्यधिक संपदा का होना परिग्रह नहीं है, धन-संपदा में आसक्ति और अंतहीन इच्छाये ही परिग्रह हैं जो व्यक्ति को घोर दुःखों के गर्त में गिरा देती है अतः आवश्यकता से अधिक आसक्ति और इच्छाओं को त्यागना चाहिए । जैन समाज उपाध्यक्ष अशोक कुमार जैन ने बताया कि प्रातः काल भक्तामर महामंडल विधान उपरांत चातुर्मास कलश स्थापित किए गए । भक्तामर महामंडल विधान करने का सौभाग्य श्रीमती रजनी- सुरेंद्र कुमार श्रीमती शिल्पी- विवेक कुमार ,  श्री मति प्रेक्क्षा-अखिल,श्री मति खुशबू – निखिल कुमार जैन को प्राप्त हुआ ।